सूर्य अस्त, पहाड़ी मस्त | कैसे पहाड़ी नशे के जाल में फंसे – एक पूरी कहानी

क्या आप विश्वास करेंगे कि जिस पहाड़ में आज करोड़ों की शराब की खपत होती है, वहाँ कभी इसका नामो-निशान तक नहीं था. आज पहाड़ के कई हिस्सों में होली की कल्पना शराब के बिना करना असंभव है, लेकिन एक समय था जब यहाँ होली भी बिना नशे और शराब के मनाई जाती थी.

आज जिन सैनिकों और जवानों के बारे में शराब न पीने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, वही सैनिक कभी बिना नशे के अपने कर्तव्यों का पालन करते थे और दुश्मनों से लड़ते थे.

आज पहाड़ की शादियों में अगर शराब न हो तो वो शादी पूरी मानी नहीं जाती. लेकिन एक ज़माना ऐसा भी था जब शादियों में बारातों के साथ शराब नहीं, बल्कि संस्कार बाँटे जाते थे. ये विडंबना ही है कि जिस पहाड़ ने कभी शराब का नाम तक नहीं सुना था, वहाँ एक समय के बाद शराब का ऐसा प्रचलन बढ़ा कि पूरे देश में "सूर्य अस्त, पहाड़ी मस्त" का जुमला मशहूर हो गया. और इस कहावत को पहाड़ के पुरुषों ने इस कदर अपने भीतर समाहित  कर लिया कि पहाड़ों की पहचान शराब पीने वालों के रूप में बनने लगी. और ये स्थिति काफी हद तक आज भी बनी हुई है.

शराब का यह प्रचलन पहाड़ों में इतना बढ़ गया कि यहाँ की महिलाओं को शराब बंदी आंदोलन चलाने पर मजबूर होना पड़ा. शायद दुनिया का सबसे बड़ा शराब बंदी आंदोलन उत्तराखंड में ही हुआ था. सवाल उठता है कि जो उत्तराखंड सदियों तक नशे से कोसों दूर रहा, वह अचानक कैसे इस जाल में बुरी तरह फँस गया?

इस ब्लॉग में हम जानेंगे कि "सूर्य अस्त और पहाड़ी मस्त" कैसे अस्तित्व में आया. समझेंगे कि पहले अंग्रेजों ने और फिर भारत सरकार ने किस तरह पहाड़ों को नशे की गिरफ्त में फँसाने का काम किया.

साथ ही जानेंगे कि सीमाओं से लौटे फौजी ददा अनजाने में ही सही, लेकिन नशे को पहाड़ों तक पहुँचाने का एक सूत्रधार कैसे बन गए.

नशामुक्त पहाड़ों से नशे में डूबते पहाड़ों की पूरी कहानी जानिए इस रिपोर्ट में.    






कैसे हुई देवभूमि में शराब की शुरुआत?


किससे कहें, अब तो शराब खुद सरकार ही बेच रही है, क्योंकि यह राजस्व का एक बड़ा स्रोत बन चुकी है.
पर क्या होगा जब लोग ही नहीं बचेंगे, तब सरकार इन पैसों का क्या करेगी?

क्या शराब पीने के बाद आदमी इंसान रह जाता है?


उत्तराखंड में शराब के खिलाफ संघर्ष करने वाली टिंचरी माई के ये शब्द पहाड़ में नशे के फैलने, इंसान पर उसके असर और इससे होने वाले नुकसानों को बखूबी बयान करते हैं. लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि नशामुक्त उत्तराखंड धीरे-धीरे नशे के जाल में कैसे फँसता चला गया?

इस सवाल का जवाब जानने से पहले आइए बात करते हैं उस पहाड़ की, जो कभी नशामुक्त था.

1815 का वो साल जब अंग्रेजों ने तत्कालीन कुमाऊँ में प्रवेश किया. ब्रिटिश राज के कई दस्तावेज बताते हैं कि उस समय के उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड ) के इस हिस्से में शराब का नशा नहीं था. जो थोड़ी-बहुत शराब प्रचलित थी, वह भी केवल तराई और भोटिया समाज के लोगों तक सीमित थी.

हालांकि, यह प्रचलन नशाखोरी नहीं, बल्कि जनजातीय परंपराओं का एक हिस्सा मात्र था. इस संदर्भ में 1839-40 में तत्कालीन कुमाऊँ के कमिश्नर बैकेट ने लिखा था:

कुमाऊँ के लोगों में शराब पीने का कोई प्रचलन नहीं है. भोटिया लोग जहाँ भी ठहरते हैं, वहाँ अपनी शराब बनाते हैं, लेकिन वे न इसे बेचते हैं और न ही अन्य लोगों को पीने के लिए प्रेरित करते हैं.

बैकेट आगे लिखते हैं:

कुमाऊँ में शराब का प्रचलन तब तक नहीं हो सकता, जब तक यहाँ जगह-जगह शराब की दुकानें ना  खोली जाएँ. और मुझे नहीं लगता कि लोग इस हानिकारक काम को कभी मंजूरी देंगे.


लेकिन जो बैकेट नहीं चाहते थे, वही बाद के वर्षों में हुआ.

बैकेट ने जिस भोटिया समाज की शराब का जिक्र किया था, वह असल में 'छंग या चक्ति' थी, जिसे सरल शब्दों में भोटिया समाज की पारंपरिक शराब कहा जा सकता है.

पहाड़ों के नशामुक्त होने का एक और सबूत 1842 में नैनीताल की खोज करने वाले पी .बैरन ने भी दिया था. 

उन्होंने बताया कि अल्मोड़ा के प्रसिद्ध व्यापारी काशी शाह की दुकान, जो क्षेत्र की एकमात्र यूरोपी सामानों की दुकान थी, पर आपको हर प्रकार का सामान मिल जाएगा, लेकिन ढूंढने पर भी वहाँ शराब नहीं मिलेगी.

जैसे-जैसे समय बदला, अंग्रेजों की आवाजाही बढ़ी, सेना में गोरखा और पहाड़ के युवाओं की भर्ती होने लगी, वैसे-वैसे पहाड़ों में शराब का आगमन भी शुरू हो गया.

हालांकि, तब भी यह प्रचलन केवल छावनियों और सैन्य चौकियों तक सीमित था, ग्रामीण क्षेत्रों तक शराब नहीं पहुँची थी.

1850 के दशक में कुमाऊँ के कमिश्नर रहे हेनरी रामसे ने बताया था:

कि ग्रामीण क्षेत्रों में बिल्कुल भी शराब नहीं पी जाती. उन्होंने इसके साथ ही उम्मीद जताई थी कि इन क्षेत्रों में यह प्रचलन कभी नहीं बढ़ेगा. तब उन्होंने कहा था कि छावनियों और सैन्य चौकियों के अलावा कहीं और शराब की दुकानें नहीं खोली जाएँगी.


इसी तरह की जानकारी कुमाऊँ के वरिष्ठ सहायक कमिश्नर गाइस ने भी दी थी. उन्होंने 1890-91 की अपनी रिपोर्ट में बताया:

पहाड़ी लोग नशे के व्यसन से काफी दूर हैं.

इस तरह देखा जाए तो 1900 के दशक तक पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा शराब के नशे से मुक्त था. खुद अंग्रेज भी इस बात की प्रशंसा करते थे. लेकिन तब सवाल उठता है कि नशामुक्त पहाड़ों की प्रशंसा करने वाला और इसे नशामुक्त रखने का संकल्प करने वाला ब्रिटिश प्रशासन धीरे-धीरे पहाड़ों में शराब के नशे को फैलाने की वजह कैसे बना? 

और कैसे यह नशा इतना फैल गया कि पहाड़ में इसके खिलाफ एक बड़ा शराबबंदी आंदोलन तक हुआ.


कैसे पहाड़ नशे की चपेट में आया?

इतिहास में अपने धर्म और समाज के लिए जितने लोग मरे हैं, उससे कहीं अधिक अपनी पीने की आदत से मारे गए हैं. इन लोगों को अपने भगवान, अपने घर, बच्चों और अपनी जान से इतना प्रेम नहीं रहा, जितना शराब से रहा.
- एल्डन हक्सले


शराब के दुष्प्रभाव को दर्शाती यह पंक्तियाँ एल्डन हक्सले की हैं, लेकिन सच्चाई जानने के बाद भी नशे का प्रकोप कम नहीं होता. 1815 में जब अंग्रेज पहाड़ों में आए, तो वे अपने साथ शराब भी लाते रहे. धीरे-धीरे इस शराब ने पहाड़ों में अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दीं. विदेशी पर्यटकों, पर्वतारोहियों, सैनिक छावनियों की स्थापना और पहाड़ी इलाकों में विदेशियों के आगमन से यहाँ नशे का कारोबार धीरे-धीरे पनपने लगा.

इतिहासकार शेखर पाठक अपनी किताब "दास्तान-ए-हिमालय" में बताते हैं कि अल्मोड़ा, देहरादून, लैंसडाउन, चकराता की छावनियाँ बनाने से भी शराब को विस्तार मिला, और बाद में नैनीताल और मसूरी जैसे हिल स्टेशनों की खोज ने इस नशे के कारोबार को और अधिक बढ़ने का मौका दिया.

हालांकि इसके बावजूद, कुछ छावनियों को छोड़कर, शराब पहाड़ों में बहुत ज़्यादा नहीं फैल पाई थी. आँकड़े बताते हैं कि तराई के मुकाबले पहाड़ों से तब की सरकार की आमदनी लगभग ना के बराबर थी. पहाड़ों से होने वाली थोड़ी-बहुत आय भी मैदानों से आने वाले लोगों के शराब सेवन के कारण ही थी.

1839-40 के आबकारी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि उस समय देहरादून से सरकार को लगभग 7000 रुपये की आबकारी आय होती थी, जबकि कुमाऊँ-गढ़वाल को मिलाकर यह महज 1500 रुपये के आस-पास थी.

शेखर पाठक कहते हैं कि शराब का यह दौर मुख्य रूप से 1880 के बाद शुरू हुआ. वह बताते हैं कि 1857 तक भी पहाड़ के गाँवों में शराब नहीं बेची जाती थी. शेखर पाठक अपने लेख में बताते हैं कि पहाड़ों में शराब के विस्तार का एक कारण गोरखा भी रहे. दरअसल, अंग्रेज़ी राज जब कुमाऊँ में आया, तो उसने गोरखा रेजिमेंट में गढ़वाल और कुमाऊँ के युवाओं को भी शामिल करना शुरू किया.

पारंपरिक तौर पर गोरखा शराब पीने के आदी थे, और उन्होंने कुमाऊँ में शराब के चलन को बढ़ावा दिया. इसके बावजूद, शराब अभी भी छावनियों और शहरों से आगे पहाड़ के भीतर नहीं पहुँच पाई थी.

1889 में, गढ़वाल के सीनियर कमिश्नर कैंपबेल ने जब देखा कि बद्रीनाथ के पंडित नशे का सेवन कर रहे हैं, तो उसने यहाँ शराब की दुकानें खोलने की तैयारी कर ली. हालाँकि, बद्रीनाथ में नशे का सेवन निकटवर्ती जनजातियों के कारण हो रहा था. इसके बाद कैंपबेल ने केदारनाथ के नीचे फेगू और बद्रीनाथ के जोशीमठ में शराब की दुकानें खोलीं. इस प्रकार इन घाटियों में शराब के व्यापार की शुरुआत हुई.

1890 आते-आते, छुट्टी पर घर लौटे सैनिक चोरी-छिपे शराब लाने लगे. वह ब्रांडी, जिसका इस्तेमाल दवाई के तौर पर होता था, अब नशे के रूप में प्रयोग होने लगी. संभव है कि इन्हीं के कारण आसपास के गाँवों में भी शराब का प्रसार शुरू हो गया.

जैसे आज सरकार शराब को राजस्व यानी कमाई का जरिया मानती है, उस दौर में भी यह तर्क दिया जाता था.

1893 में अल्मोड़ा अख़बार ने इस प्रवृत्ति को नकारते हुए कहा था कि पहाड़ में नशे पर रोक लगनी चाहिए और सरकार को अपनी कमाई के लिए लोगों की जान से नहीं खेलना चाहिए.

1890 के दशक तक भले ही शराब पहाड़ों में पहुँच चुकी थी, लेकिन ग्रामीण उत्तराखंड इसे आसानी से स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था. उन्होंने इसका विरोध किया. 1880 में जब ग्रामीण इलाकों में शराब की दुकानें खोली गईं, तो उनकी बिक्री इतनी कम थी कि वे दुकानें खुद ही बंद हो गईं.

1907-08 में चौखुटिया में लोगों के विरोध के कारण शराब की दुकानें बंद करनी पड़ीं. 1920 के दशक तक भी पहाड़ काफी हद तक शराब के नशे से बचा हुआ था. इसका एक प्रमाण वॉल्टन की रिपोर्ट में मिलता है. वॉल्टन लिखते हैं कि:

पहाड़ी लोगों में नशे के प्रति ज्यादा रुचि नहीं है, और यहाँ से जो आबकारी आय प्राप्त होती है, वह यात्रामार्गों में नशीले पदार्थों की बिक्री के कारण मिलती है.

 


सैनिक भर्ती के साथ तेज़ी से फैला शराब का चलन


यदि सुरा शराब और कच्ची शराब का प्रसार कुछ और वर्षों तक पहाड़ों में बना रहा, तो हम न तो रक्षा सेवा के योग्य रहेंगे और न ही दो वक्त की रोटी कमाने के लायक. सेना में शराब का चलन अंग्रेजों की देन है, और इसे दूर-दूर तक गाँवों में फैलाने का काम किया छुट्टी पर आने वाले सैनिकों ने, जिन्हें शराब लाने की छूट दी जाती थी.

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मैंने इटली के बर्फ से ढके पहाड़ों में सेवा दी है, तो मिस्र के तपते रेगिस्तानों में भी मैं तैनात रहा.

मैंने भारत के कश्मीर, पुणे, मद्रास और गोवा में भी अपनी सेवाएँ दीं, लेकिन मुझे कभी भी अपने काम के लिए शराब की ज़रूरत महसूस नहीं हुई. अपने 28 साल के कार्यकाल में न मैंने कभी सिगरेट पी है, न ही शराब का स्वाद चखा है.


बागेश्वर में सैनिक कैंटीन से 160 रुपये प्रति माह की पेंशन मिलती है, जिसमें से 105 रुपये की शराब दी जाती है. मैं रक्षा मंत्रालय से अपील करता हूँ कि छुट्टी पर आने वाले सैनिकों को शराब न दी जाए और कैंटीन में केवल आवश्यक वस्तुएँ ही मुहैया कराई जाएँ.


स्वाधीन प्रजा, 1994 (शेर शाह नागरकोटी का पत्र)


1994 में स्वाधीन प्रजा में अल्मोड़ा की सैनिक कल्याण समिति के सचिव - शेर सिंह नागरकोटी के इस पत्र से यह स्पष्ट होता है कि कैसे सैनिकों को शराब के प्रसार का माध्यम बना दिया गया था. यह वही शराब है जिसने बाद में उत्तराखंड के युवाओं को सेना के योग्य भी नहीं छोड़ा.

जब पूरी दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध के चक्रव्यूह में फँसी थी, तब अंग्रेजों ने पहाड़ों में सैनिक भर्ती तेज कर दी और इन भर्तियों के साथ शराब को प्राथमिकता से शामिल किया गया.

शेखर पाठक बताते हैं कि गढ़वाल के कमिश्नर रैम्ज़े बर्नियर और अन्य अधिकारी जब भी पहाड़ों की ओर जाते, तो शराब के गैलन भरकर साथ ले जाते थे, कहा जाता है कि बर्नियर शराब पीकर नाचता भी था.

आबकारी विभाग ने अधिकारियों को आदेश दिया था कि सभी सैनिकों को रम उपलब्ध कराई जाए. अगर रम खत्म हो जाए, तो उन्हें सफेद रम, यानी ठर्रा दिया जाए.

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सैनिक भर्ती को बढ़ावा देने के लिए जब गोचर मेले का आयोजन हुआ, तो वहाँ सार्वजनिक रूप से शराब का भव्य प्रदर्शन किया गया. रानीखेत की बीयर फैक्टरी से भी सेना के लिए उत्पादन लिया जाता था.

अंग्रेजों के जाने के बाद देश में नशाबंदी के प्रयास तो हुए, लेकिन इसे कभी भी एक व्यापक राष्ट्रीय अभियान के रूप में नहीं देखा गया.

1948 से 1960 के बीच उत्तर प्रदेश के कई जिलों में नशाबंदी के प्रयास किए गए, परंतु ये सफल नहीं हो पाए. हालाँकि, उस समय तक पहाड़ों में नशे का प्रचार-प्रसार उतना नहीं था, जितना उत्तर प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में था. लेकिन पंचवर्षीय योजनाओं और विकास कार्यों के नाम पर पहाड़ों में शराब का चलन तेज़ी से बढ़ा, या यूँ कहें कि बढ़ाया गया.

उत्तराखंड में जो ब्रांडी पहले दवाई के रूप में इस्तेमाल की जाती थी, वह अब नशे का एक प्रमुख माध्यम बनने लगी. 1960 में भारत-चीन युद्ध के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने सभी नशाबंदी कार्यक्रम वापस ले लिए, और अब शराब उत्तराखंड के अंतिम सीमांत तक पहुँच चुकी थी.

पहाड़ों में अल्कोहल की भारी मात्रा वाली दवाइयाँ, जैसे अशोका लिक्विड, की बिक्री कई गुना बढ़ गई. इन्हें बेचने वाली नव-स्थापित दुकानों को "तिंचरी" नाम दिया गया.

1980 के दशक तक आते-आते पहाड़ों में लिक्विड, सुरा, और अन्य जहरीले पदार्थ खुलेआम बिकने लगे. अब यहाँ की किराना और पान की दुकानों पर भी छुपे रूप में शराब मिलने लगी. शेखर पाठक बताते हैं कि हर महीने 100 ट्रक जहरीले पदार्थ कुमाऊँ पहुँचाए जाते थे, और 50 से अधिक कंपनियाँ नशे को दवाई के नाम पर बेचने लगीं.

शेखर पाठक उस समय के एक सर्वे का उल्लेख करते हैं, जिसके अनुसार द्वाराहाट में एक दुकान से प्रतिदिन 3000 रुपये की अशोका लिक्विड बिकती थी. रानीखेत में हर महीने 2500 लीटर अशोका लिक्विड बेची जाती थी.

इसी तरह पिथौरागढ़ समेत अन्य स्थानों पर भी चाय और किराने की दुकानों के पीछे ‘टिंचरी, सुरा’ बेची जाने लगी थी. सरकार के राजस्व के लालच ने उत्तराखंड को नशे के गड्ढे में धकेलने का काम शुरू कर दिया था.

जब उत्तराखंड में नशे का व्यापार बढ़ा, तो यहाँ के आमजन ने इसे आसानी से स्वीकार नहीं किया, बल्कि इसके खिलाफ आवाज़ उठानी शुरू कर दी.



नशे के खिलाफ विरोध


इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि उत्तराखंड में नशीले पेयों का उपयोग वे लोग करते हैं या करवाते हैं, जो यहाँ की वन और खनन संपदा का वर्षों से दोहन कर रहे हैं. ये लोग इन नशों के माध्यम से स्थानीय नौकरशाहों, क्षेत्रीय नेताओं और आवारा किस्म के लड़कों को अपने पक्ष में करते हैं, और फिर इन्हीं की गुंडागर्दी और नेतागिरी के बल पर पिछड़े क्षेत्रों में जड़ी-बूटी, लीसा, लकड़ी और अन्य शोषणकारी वैध-अवैध धंधे चलाते हैं. यहाँ तक कि ये लोग लड़कियों की खरीद-फरोख्त करने से भी नहीं कतराते.


अमर उजाला 1984 (खड़क सिंह खनी की टिप्पणी)


1984 में खड़क सिंह खनी ने अमर उजाला अखबार में यह टिप्पणी की थी. और यह सच था कि उत्तराखंड को नशे का गढ़ बनाया जा रहा था. नशे ने युवाओं को जहाँ टीवी जैसी बीमारी का शिकार बना दिया, वहीं यहाँ की अर्थव्यवस्था भी चरमराने लगी.

कड़ी मेहनत से कमाई गई दौलत अब नशे में बहने लगी. इसके अलावा, शांत पहाड़ों में हत्या, चोरी, डकैती जैसे अपराधों का इज़ाफ़ा होने लगा. जहरीली शराब से लोगों की मौत की खबरें आम हो गई थीं. शराब पीकर गाड़ियों और बसों को चलाने के कारण दुर्घटनाएँ बढ़ने लगी थीं. पहले जो पहाड़ी जवान सेना भर्ती में सबसे आगे रहते थे, वे अब दौड़ भी पूरी नहीं कर पाते थे.

शराब के नशे ने उन्हें न काम का छोड़ा, न काज का. इस नशे के प्रकोप को देखते हुए पहाड़ ने अब इससे लोहा लेने का मन बना लिया था. 1950-1960 के दशक में छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुके थे.






देहरादून में दर्जी का काम करने वाले सोहन लाल ने सबसे पहले सरकार की आबकारी नीतियों का विरोध किया. उन्होंने इसके लिए पोस्टकार्ड अभियान चलाया. उन्होंने कोटद्वार, पौड़ी और बाद में लखनऊ जाकर धरना-प्रदर्शन किया. इसका व्यापक असर तो नहीं हुआ, लेकिन यात्रा मार्ग पर 3-4 दुकानों को बंद कर दिया गया.

टिंचरी माई ने भी कई जगह टिंचरी की दुकानों को आग के हवाले कर दिया. 1980 के दशक तक ऐसे छोटे-मोटे आंदोलनों का सिलसिला चलता रहा.

1983 में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने इस आंदोलन को तेज किया. अब पहाड़ की महिलाएँ नशे के खिलाफ सड़कों पर उतर चुकी थीं. "नशा नहीं, रोजगार दो" आंदोलन के साथ पहाड़ की महिलाएँ मजबूती से अपनी आवाज उठाने लगी थीं. महिलाओं के साथ छात्र भी सड़कों पर आ गए. कहीं शराब बेचने वाले का मुँह काला किया गया, तो कहीं सरकार के खिलाफ जुलूस निकाले गए.

17 जून 1984 को ऐतिहासिक प्रदर्शन हुआ, जब बारिश के बावजूद हजारों लोग सड़कों पर उतरे. "नशा नहीं, रोजगार दो" आंदोलन ने उत्तराखंड में काफी हद तक नशे को लेकर सरकार की नीतियों में बदलाव कराने में अहम भूमिका निभाई.

हालांकि, नशा उत्तराखंड से पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया.

आज भी इसका चलन काफी अधिक है. आज शराब की फैक्ट्रियाँ पहाड़ों में खुद सरकार लगवा रही है. शराब को घर-घर तक पहुँचाने का इंतजाम किया जा रहा है. अपार धन कमाने के लिए शराब के धंधे को पहाड़ों में बढ़ावा दिया जा रहा है, और हम सब भी सरकार के इस छल में फंसकर भूलते जा रहे हैं कि हमारे पूर्वजों ने कभी शराब को हाथ तक नहीं लगाया था. क्योंकि उन्हें पता था कि नशा इंसान को बर्बाद करने का सबसे बड़ा साधन है.

आज उत्तराखंड में सिर्फ शराब नहीं, बल्कि कोकीन, ड्रग्स जैसे नशे भी लगातार बढ़ रहे हैं. सरकार भले ही 2025 तक उत्तराखंड को नशा मुक्त करने का संकल्प ले ले, लेकिन शराब और नशों को बढ़ावा देकर वह इस काम को कैसे अंजाम देगी, यह सोचने का विषय है.

टिंचरी माई ने ठीक ही कहा था कि "शराब इंसान को इंसान नहीं रहने देती." टिंचरी माई के इन शब्दों पर गहराई से सोचने की जरूरत है, और फिर तय कीजिए कि शादियों और पार्टियों में आपको शराब परोसनी चाहिए या नहीं.

जो युवा नशे के आदी होते जा रहे हैं, उन्हें इस नरक में जाने से कैसे बचाया जा सकता है, इस पर भी विचार करने की जरूरत है.

और अगर आप इस पर विचार करने के लिए सरकार पर निर्भर हैं, तो फिर आप गलतफहमी में ही रहेंगे. हमें सरकार से पूछना होगा कि नशा नहीं, रोजगार दिया जाए. विनाश नहीं, विकास किया जाए.


तब जाकर कहीं स्थिति बदल सकती है, और आप अपने युवाओं को नशे के चंगुल से बचा सकते हैं.

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