उत्तराखंड कहानियों से भरा हुआ राज्य है जहाँ हर गाँव और हर व्यक्ति की अपनी एक अलग और दिलचस्प कहानी होती है.
इन्हीं कहानियों में से एक अनोखी और सच्ची घटना पर आधारित है एक बकरे की कहानी, जिसे गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने 'बैजू' नाम दिया और उसे सेना में 'जनरल की उपाधि दी. यह कोई साधारण बकरा नहीं था बल्कि इसने अपने अनोखे कार्य से सेना और इतिहास में अपनी अलग पहचान बनाई.
आइए जानते हैं इसकी पूरी कहानी.
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"यह चित्र AI की सहायता से तैयार किया गया है" |
पहला विश्व युद्ध और अफगानिस्तान में गढ़वाल राइफल्स का संघर्ष
साल 1914 – 1918 ,पहले विश्व युद्ध के दौरान अफगान विद्रोहियों ने अंग्रेजी सेना के खिलाफ विद्रोह कर दिया था.अफगानी विद्रोही पहाड़ी क्षेत्रों के साथ अच्छी तरह से परिचित थे जिससे अंग्रेजों की सेना को उनके खिलाफ भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. स्थिति को सँभालने के लिए अंग्रेजों ने भारत से सेना भेजी जिसमें गढ़वाल राइफल्स की एक टुकड़ी भी शामिल थी. गढ़वाल राइफल्स के जवान भी पहाड़ी युद्ध में निपुण थे और इसी कारण उन्हें अफगानिस्तान की चित्राल सीमा पर भेजा गया.
लेकिन दुर्भाग्यवश जवान रास्ता भटक गए. जो नक्शा उनके पास था वह उन्हें सही दिशा में ले जाने में असफल था. ऊपर से उनके पास भोजन की भी भारी कमी थी, जिससे जवान भूखे-प्यासे पहाड़ों में भटकने लगे. ऐसी विकट परिस्थितियों में दिन के समय अफगानी विद्रोहियों का खतरा रहता था और रात में भूख उनके हौसले को तोड़ रही थी.
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बैजू बकरा: भगवान का भेजा दूत
एक दिन जब जवान आगे बढ़ रहे थे, तभी झाड़ियों से हलचल हुई और उनके सामने एक बड़ा जंगली बकरा आ खड़ा हुआ.भूखे जवानों ने सोचा कि इस बकरे को मारकर वे अपनी भूख मिटा सकते हैं ,लेकिन बकरा अचानक भाग खड़ा हुआ. जवान उसके पीछे दौड़े और वह एक बड़े खेत में पहुँच गया. वहाँ बकरा अपने पैरों से ज़मीन खोदने लगा. जवान यह देख कर चकित थे कि यह बकरा आखिर क्या कर रहा है. थोड़ी देर में उसने ज़मीन से आलू निकाल दिए.
जवानों के चेहरों पर मुस्कान लौट आई, क्योंकि इतने दिनों बाद उन्हें भर पेट भोजन मिलने वाला था. पूरा खेत आलुओं से भरा हुआ था. उन्होंने तुरंत आलू पकाए और अपनी भूख मिटाई. अगर वे बकरे को मार देते, तो शायद वो अपनी पूरी टुकड़ी की भूख शांत नहीं कर पाते लेकिन अब वे आलू खाकर अपनी भूख शांत कर सकते थे. इस बकरे को मारने की बजाय, उन्होंने उसे भगवान का भेजा दूत मान लिया और अपने साथ रखने का फैसला किया.
जनरल बैजू बकरा: वीरता और सम्मान का प्रतीक
इस अनोखे बकरे को साथ लेकर जवान अपने मिशन पर आगे बढ़े और सफलता प्राप्त की. गढ़वाल राइफल्स की इस टुकड़ी ने अपनी वीरता से युद्ध में विजय प्राप्त की और बैजू बकरा को भी लैंसडाउन अपने साथ ले आए.यहाँ बैजू का भव्य स्वागत हुआ और उसे "जनरल बैजू बकरा" की उपाधि दी गई.
बैजू को लैंसडाउन में एक विशेष बैरक दी गई जहाँ उसके खाने-पीने और आराम की सारी सुविधाएँ दी गईं. जवान उसे सलामी देते और वह बाजार में कहीं भी जाकर कुछ भी खा सकता था. दुकानदार उसका बिल गढ़वाल राइफल्स को भेजते, और सेना उसकी भुगतान करती. उसे नुकसान पहुँचाने पर सख्त पाबंदी थी.
जब जनरल बैजू बकरे का निधन हुआ, तो उसका सैन्य सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया. यह बकरा गढ़वाल राइफल्स के जवानों के लिए केवल एक जानवर नहीं, बल्कि वीरता और कृतज्ञता का प्रतीक बन चुका था.
कहानी का संदेश
जनरल बैजू बकरा की यह अनोखी कहानी हमें दिखाती है कि किस्मत और हिम्मत किसी भी रूप में आ सकती है. गढ़वाल राइफल्स के जवानों के लिए यह बकरा एक देवदूत से कम नहीं था, जिसने कठिन समय में उनका साथ दिया. इस कहानी ने इतिहास में एक अनोखा स्थान प्राप्त कर लिया है और यह हमेशा याद रखी जाएगी.
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