उत्तराखंड में आज के समय में लगभग हर गांव तक सड़क पहुँच चुकी है और जहाँ अब तक नहीं पहुँची, वहाँ भी आने वाले कुछ सालों में पहुँचने की उम्मीद है.
सड़क मार्ग बनने से उत्तराखंड के लोगों को काफी सुविधा मिलती है क्योंकि पहले के समय में उन्हें ये रास्ते पैदल ही तय करने पड़ते थे जब सड़कें नहीं थीं.गढ़वाल में सड़क मार्ग की शुरुआत:
आज से 100 साल पहले तक पौड़ी के लिए सड़क मार्ग नहीं बना था. और जब सड़क नहीं थी, तो गाड़ियाँ कहाँ से आतीं. गाड़ी केवल पौड़ी गढ़वाल के उन्हीं लोगों ने देखी थी जो कोटद्वार तक जाते थे या प्रदेश में नौकरी करते थे.उनमें से अधिकतर दूर-दराज के ढाकरी होते थे, जो मुख्य रूप से नमक और गुड़ लेने के लिए कई दिनों में कोटद्वार पहुँचते और फिर वहाँ से सामान लेकर वापस आते थे.
इसीलिए जब पहली बार गाड़ी पौड़ी पहुँची तो ग्रामीण महिलाओं ने जिन्हें यह भी नहीं पता था कि गाड़ी किस चीज़ को कहते हैं,उन्होंने गाड़ी के सामने घास और पानी रख दिया था. यह सोचकर कि बेचारी लंबा रास्ता तय करके आई होगी और उसे भूख-प्यास लगी होगी.
पहली गाड़ी पौड़ी कैसे और कब पहुंची थी?
यह कहानी पूरी तरह उत्तराखंड के पूर्वजों द्वारा सुनाई गई कहानियों पर आधारित है. पहली गाड़ी कैसे पौड़ी पहुँची, यह जानने से पहले आपको स्वतंत्रता से पहले के गढ़वाल की स्थिति को समझना ज़रूरी है.
गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेज़ों की मदद से गोरखाओं के शासन का अंत किया था. लेकिन इसके बाद गढ़वाल दो हिस्सों में बँट गया - एक तरफ टिहरी रियासत और दूसरी ओर ब्रिटिश गढ़वाल, जिसमें पौड़ी और चमोली गढ़वाल शामिल थे.कुमाऊँ का ब्रिटिश कमिश्नर ही गढ़वाल की शासन व्यवस्था को देखता था. इसी दौरान 5 मई 1887 को फील्ड मार्शल एफ.एस. रॉबर्ट्स के प्रयासों से अल्मोड़ा में गढ़वाल राइफल्स की स्थापना की गई. 4 नवंबर 1887 को गढ़वाल राइफल्स का मुख्यालय काला डांडा (जिसे अब लैंसडाउन कहा जाता है) में बनाया गया.
अब गढ़वाल राइफल्स के अंग्रेज़ अधिकारी कोटद्वार से घोड़ों और खच्चरों पर बैठकर लैंसडाउन आते थे जबकि सिपाही पैदल चलते थे. अंग्रेज़ अधिकारियों को लगने लगा कि यदि सड़क होती तो वे गाड़ी से जल्दी पहुँच सकते थे.
बस आदेश करने की देरी थी और आदेश मिलते ही , गढ़वाल राइफल्स के जवान सड़क बनाने में जुट गए. इस तरह साल 1905 में दुगड्डा तक और 1909 में लैंसडाउन तक सड़क का निर्माण हो गया. लेकिन लैंसडाउन तक सिर्फ अंग्रेज़ों की गाड़ियाँ ही जाती थीं. गढ़वालियों के लिए यह सुविधा हुई कि अब ढाकरी (यानी गुड़, नमक, चना लेने वाले लोग) कोटद्वार की बजाय दुगड्डा तक ही जाते थे.
पौड़ी से लेकर पोखड़ा और बीरोंखाल तक के ढाकरी दुगड्डा पहुँचते थे. कहा जाता है कि जब पहली बार कोटद्वार से गुड़, नमक और चना लेकर गाड़ी दुगड्डा पहुँची थी, तो उसे देखने के लिए वहाँ करीब 15,000 ढाकरी इकट्ठा हो गए थे.
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"यह चित्र AI की सहायता से तैयार किया गया है" |
यह गाड़ी दुगड्डा के व्यापारी मोतीराम की थी, जिनसे ढाकरी ज़रूरी सामान खरीदते थे. उस समय पौड़ी में कमिश्नरी थी और वहाँ भी अंग्रेज अधिकारी तैनात थे. उनके लिए विशेष खच्चर मार्ग बनाया गया था, जिस पर सिर्फ अंग्रेज अधिकारियों के घोड़े - खच्चर और उनके नौकर ही चल सकते थे.
आम जनता को इन खच्चर मार्गों पर चलने की अनुमति नहीं थी. वैसे भी आम लोग अपने लिए पहाड़ियों में निकट मार्ग, कच्चे रास्ते खुद ही बना लेते थे. इस तरह से ढाकरी लोगों का दुगड्डा तक का रास्ता लगभग तय होता था, लेकिन वे अंग्रेजों द्वारा निर्धारित घोड़ा-खच्चर मार्ग पर नहीं चल सकते थे.
अंग्रेज अधिकारियों के प्रयासों से इस घोड़ा-खच्चर मार्ग को चौड़ा किया जाने लगा और इसे सड़क का रूप दिया जाने लगा. आखिरकार, 1926 के आसपास यह सड़क बनकर सतपुली तक तैयार हो गई.
अब आगे पूर्वी और पश्चिमी नयार नदियां थीं, जिनकी वजह से सड़क आगे नहीं बढ़ पाई. इस सड़क पर आम जनता के लिए गाड़ियाँ नहीं चलती थीं. उन्हें पहले की तरह ही कच्चे रास्तों से होकर दुगड्डा तक जाना पड़ता था. इस सड़क पर केवल गढ़वाल राइफल्स के अंग्रेज अफसरों और पौड़ी कमिश्नरी के अंग्रेज अधिकारियों की गाड़ियाँ ही चलती थीं.
कुछ समय बाद सतपुली में पुल निर्माण का कार्य भी शुरू हो गया और अंततः 1932 में यह पुल बनकर तैयार हो गया. यह पुल लकड़ी का था. जब इस पर गाड़ी गुजरती थी, तो पुल से एक जोर की आवाज़ आती थी, जिससे सतपुली के हर व्यक्ति को पता चल जाता था कि गाड़ी आ रही है या जा रही है. गाड़ी को देखने के लिए लोग अपने घरों से बाहर निकल आते थे.
सतपुली में पूर्वी नयार पर पुल बनने से पहले ही बौंसल, पाटीसैण और कनमोठलिया तक सड़क तैयार कर दी गई थी. लेकिन अंग्रेज अधिकारी बाँघाट से कांसखेत और धाड़ुखाल होते हुए पौड़ी पहुँचने वाले पुराने घोड़ा-खच्चर मार्ग से ही सफर करते थे, क्योंकि पश्चिमी नयार पर अभी पुल नहीं बना था.
आखिरकार, कनमोठलिया में भी लकड़ी का पुल बनाया गया, जिससे सड़क ज्वाल्पा, अगरोड़ा, परसुंडाखाल, घोड़िकाल, बुआखाल होते हुए पौड़ी पहुँची. गढ़वालियों को फिर भी आवश्यक सामान के लिए दुगड्डा ही जाना पड़ता था, क्योंकि इस सड़क पर केवल अंग्रेज अधिकारियों की गाड़ियाँ चल सकती थीं.
लोग अंग्रेज अफसरों की गाड़ी से डरते थे, क्योंकि उन्हें नहीं पता होता था कि अफसर कब बिदक जाए या गुस्से में आ जाए. इस डर से लोग सड़क के आसपास भी भटकने से कतराते थे.
इस बीच, देशभर में 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया. इसका असर गढ़वाल में राज कर रहे अंग्रेज अधिकारियों पर भी पड़ने लगा. आखिरकार, 1942 में उन्होंने कोटद्वार, दुगड्डा, सतपुली होते हुए पौड़ी तक निजी वाहन चलाने की अनुमति दे दी.
अंग्रेज बड़े चतुर थे, क्योंकि उन्हें पता था कि गढ़वाल में किसी के पास निजी वाहन नहीं था, तो फिर चलाएगा कौन?
लेकिन दुगड्डा के व्यापारी मोतीराम और कोटद्वार के सेठ सूरजमल को जब इस खबर का पता चला तो दोनों ने
मिलकर एक बड़ी गाड़ी खरीद ली.
परन्तु अब एक और समस्या सामने आई - इस गाड़ी को पहाड़ के कच्चे रास्तों पर चलाएगा कौन?
इस चुनौती को पयासु गाँव के श्री राजाराम मलासी ने स्वीकार किया, जो इससे पहले मैदानी इलाकों में गाड़ी चलाते थे. इस तरह से पहली गाड़ी कोटद्वार से पौड़ी के लिए रवाना हुई. इसमें कुछ अधिकारी ही सवार थे, लेकिन आम लोगों को भी इसके दर्शन करने की अनुमति दी गई थी.
कहते हैं कि तब दूर-दूर के गाँवों से लोग गाड़ी को देखने के लिए सड़क मार्ग के किनारे खड़े हो गए थे. ड्राइवर राजा राम मलासी की जय-जयकार हो रही थी और लोग उन्हें फूल-मालाएँ पहना रहे थे.
पहले दिन गाड़ी सतपुली पहुँची, जहाँ रात्रि विश्राम किया गया. अगले दिन जब गाड़ी सतपुली से आगे बढ़ी, तो लोग सुबह से ही सड़क किनारे इसका इंतजार कर रहे थे.
ड्राइवर मलासी भी गाड़ी के इंजन को ठंडा करने के लिए उसमें पानी डाल देते थे और कभी-कभी लोगों का दिल रखने के लिए गाड़ी के बोनट पर भी पानी डाल देते थे, लेकिन घास का क्या करते? इसलिए ग्रामीणों को मन मारकर वह घास वापस ले जाना पड़ता.
अब पौड़ी मार्ग पर गाड़ियाँ चलने लगी थीं. देश स्वतंत्र हो चुका था. ढाकरी लोगों को अब पौड़ी, पाटीसैण और सतपुली से सामान मिल जाता था. सतपुली में वे रात्रि विश्राम के लिए रुकते थे.
परन्तु अब एक और समस्या सामने आई - इस गाड़ी को पहाड़ के कच्चे रास्तों पर चलाएगा कौन?
इस चुनौती को पयासु गाँव के श्री राजाराम मलासी ने स्वीकार किया, जो इससे पहले मैदानी इलाकों में गाड़ी चलाते थे. इस तरह से पहली गाड़ी कोटद्वार से पौड़ी के लिए रवाना हुई. इसमें कुछ अधिकारी ही सवार थे, लेकिन आम लोगों को भी इसके दर्शन करने की अनुमति दी गई थी.
कहते हैं कि तब दूर-दूर के गाँवों से लोग गाड़ी को देखने के लिए सड़क मार्ग के किनारे खड़े हो गए थे. ड्राइवर राजा राम मलासी की जय-जयकार हो रही थी और लोग उन्हें फूल-मालाएँ पहना रहे थे.
पहले दिन गाड़ी सतपुली पहुँची, जहाँ रात्रि विश्राम किया गया. अगले दिन जब गाड़ी सतपुली से आगे बढ़ी, तो लोग सुबह से ही सड़क किनारे इसका इंतजार कर रहे थे.
ग्रामीणों की भोली प्रतिक्रिया
हर जगह उत्सव जैसा माहौल था. लोग अपने घरों से खाने का सामान लेकर पहले से ही सड़क के किनारे जम चुके थे. कुछ लोग तो गाड़ी की चिंता में थे, उन्हें लगा कि बेचारी दो दिन से चल रही है, भूखी-प्यासी होगी , इसलिए वे गाड़ी के लिए घास और बाल्टियों में पानी लेकर आए थे. रास्ते में कुछ महिलाओं ने गाड़ी को घास खिलाने और पानी पिलाने की कोशिश की. अगरोड़ा में तो एक बुजुर्ग महिला ने गाड़ी को पानी पिलाने की पूरी कोशिश की.उस समय के लोग कितने मासूम ,भोले और सहज थे.
अब पौड़ी मार्ग पर गाड़ियाँ चलने लगी थीं. देश स्वतंत्र हो चुका था. ढाकरी लोगों को अब पौड़ी, पाटीसैण और सतपुली से सामान मिल जाता था. सतपुली में वे रात्रि विश्राम के लिए रुकते थे.
सतपुली का पुल और बाढ़ की तबाही
14 सितंबर 1951 की वह काली रात आई जब पहाड़ों में जमकर बारिश हुई और सतपुली में बाढ़ आ गई. इस बाढ़ में 22 मोटर, बसें, ट्रक आदि बह गए. इन वाहनों में सवार 30 से अधिक ड्राइवर, कंडक्टर भी अपनी जान गंवा बैठे.इस घटना पर बाद में एक गीत भी बना था. जिसके बोल कुछ ऐसे थे.
"2008 भादों का मास, सतपुली मोटर बौगीन खास।"
यह घटना विक्रमी संवत 2008 की है, इसलिए गीत में 2008 का जिक्र किया गया. उस समय गढ़वाल में हिंदू पंचांग अधिक प्रचलित था.
उम्मीद है कि आपको पौड़ी में गाड़ी पहुँचने की यह पहली यात्रा पसंद आई होगी. आप अपने सुझाव और टिप्पणियाँ हमारे साथ साझा कर सकते है.
इस कहानी को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाए....सेमन्या 👏!!!
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