Jaswant Singh Rawat : उत्तराखंड का वीर सपूत जिसने अकेले ही 300 चीनी सैनिकों को धूल चटाई

उत्तराखंड की भूमि ने कई वीर योद्धाओं को जन्म दिया है, और जसवंत सिंह रावत उन महान सपूतों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी.

जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव बादयूं में हुआ था. इनके पिता का नाम गुमान सिंह रावत था.  एक साधारण किसान परिवार में जन्मे जसवंत, बचपन से ही साहस और देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत थे.

सेना में भर्ती होने का जुनून जसवंत सिंह रावत के दिलो-दिमाग पर ऐसा छाया था कि वे मात्र 17 वर्ष की आयु में ही सेना में शामिल होने के लिए निकल पड़े.  हालाँकि, उनकी उम्र कम होने के कारण उस समय उन्हें सेना में भर्ती नहीं किया गया, लेकिन उनका उत्साह और दृढ़ संकल्प कभी कम नहीं हुआ.






सेना में भर्ती और युद्ध की शुरुआत:

जसवंत सिंह रावत 4 गढ़वाल राइफल्स के जवान थे. भारत-चीन युद्ध 1962 के दौरान उनकी पोस्टिंग नूरानांग पोस्ट पर थी, जो आज के अरुणाचल प्रदेश में स्थित है. यह स्थान सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था, और यहाँ पर चीनी सेना लगातार हमले कर रही थी. जसवंत सिंह रावत और उनके साथी जवानों का काम था इस पोस्ट की रक्षा करना.


केले लड़ाई और वीरता की कहानी:

जसवंत सिंह रावत की वीरता की कहानी तब शुरू होती है जब उन्होंने अकेले ही 72 घंटे तक चीनी सैनिकों को रोके रखा. चीनी सेना भारी संख्या में थी और उनके पास आधुनिक हथियार भी थे. लेकिन जसवंत सिंह ने अपनी सूझबूझ और रणनीति से चीनी सेना को कई दिनों तक आगे बढ़ने नहीं दिया. उन्होंने एक पहाड़ी से फायरिंग करते हुए चीनी सेना को गुमराह किया. जसवंत सिंह ने पोस्ट पर कई जगह मशीन गनें और राइफलें लगा रखी थीं, जिससे चीनी सेना को लगा कि भारतीय सेना की एक बड़ी टुकड़ी उनका सामना कर रही है.


अंतिम बलिदान और सम्मान:

72 घंटे की भीषण लड़ाई के बाद, 17 नवम्बर , 1962 को जसवंत सिंह रावत वीरगति को प्राप्त हुए. उनकी वीरता और बलिदान को देखकर भारतीय सेना और स्थानीय लोगों ने उन्हें 'जसवंत बाबा' के रूप में सम्मानित किया. उनके सम्मान में जसवंतगढ़ नामक स्मारक बनाया गया, जहाँ आज भी लोग उनकी बहादुरी को नमन करने के लिए आते हैं. भारतीय सेना ने उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया, जोकि वीरता के लिए दिया जाने वाला दूसरा सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार है.


विरासत और प्रेरणा:

जसवंत सिंह रावत का जीवन और बलिदान आज भी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है. उनका नाम सुनते ही देशभक्ति की भावना जाग उठती है और हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. उनके साहस और बलिदान की कहानी आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाती है कि सच्चा वीर वही है जो अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने से भी पीछे न हटे.

जसवंत सिंह रावत केवल एक सैनिक नहीं थे, वे एक योद्धा थे, जिन्होंने अपने अद्वितीय साहस और दृढ़ संकल्प से यह साबित कर दिया कि सच्चे वीर को किसी संख्या या शस्त्र का डर नहीं होता. उनके अदम्य साहस की गाथा हमेशा हमारी स्मृतियों में जीवित रहेगी और हमें प्रेरित करती रहेगी कि हम भी अपने देश के लिए कुछ कर गुजरें.

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